अलविदा ‘नीरज’: ऐसी थी कवि गोपाल दास की जीवनचर्या, लिखे थे ये बेहतरीन फिल्मी गाने

गोपालदास सक्सेना 'नीरज' की जीवनचर्या, लिखे ये बेहतरीन गाने

गोपालदास सक्सेना 'नीरज' की जीवनचर्या, लिखे ये बेहतरीन गाने

गुुरुवार शाम जब यह खबर आई कि कवि और गीतकार गोपालदास नीरज नहीं रहे तो सोशल मीडिया पर आई प्रतिक्रियायें बता रहींं थी कि इस कवि और इसकी कविता ने लोगोंं के मन को कितना छुआ था। सूत्रों के मुताबिक, गुरुवार को चिर निंद्रा में सोए और महायात्रा पर निकले गीतकार पद्मभूषण गोपाल दास ‘नीरज’ का आखिरी कारवां शनिवार को अलीगढ़ पहुंच रहा है। गुरुवार को उनका दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया था। नीरज के पौत्र पल्लव नीरज की अमेरिका से लौटने के लिए प्रतीक्षा की जा रही है। जिसके बाद दिल्ली से उन्हें अलीगढ़ लाया जाएगा।

उनके जीवनचर्या की बात करे तो, गोपालदास नीरज ने भरपूर जीवन जिया। उम्र के लिहाज से भी और कविता के लिहाज से भी। अपने गीत में प्रेम और दर्द को किस कैसे लिखना है, यह उनसे बेहतर कोई नहीं कर सकता। जबकि प्रेम के साथ दर्द को मिलाकर गाने वाले फ्ककड़ गीतकार थे। चार जनवरी १९२५ को आगरा के इटावा जिले में पैदा हुए नीरज को मां-बाप ने गोपालदास सक्सेना नाम दिया था। गोपालदास छह साल के थे तभी उनके पिता नहीं रहे। घर में आर्थिक तंगी बढ़ने लगी तो उन्होंने किसी तरह हाईस्कूल की परीक्षा पास की और इटावा कचहरी मेें टाइपिंग करने लगे।

टैपिंक की खटर- पटर में गोपलदास कविताओं के बोल के बारे में सोचते रहते थे। लेकि नीरज रोजी-रोटी की तलाश मेें उन शब्दों को अनसुुना करते रहे। भीं कुछ दिन एक सिनेमाहाल मेें नौकरी की। फिर दिल्ली में टाइपिस्ट की सरकारी नौकरी लगी। जो जल्द ही छूट भी गई। फिर आगे पढ़ाई की और मेरठ कालेज में नौकरी की। वहां उन पर न पढ़ाने का आरोप लगा। यह नौकरी छोड़ी और फिर अलीगढ़ में पढ़ाने लगे थे। बाद में अलीगढ़ उनका स्थायी ठिकाना बन गया। देखा जाये तो, नीरज की जिंदगी बहुत जटिल रही। लेकिन इस जटिलता से उन्होंने न जाने कहां से इतनी सरल भाषा चुरा ली थी जिसे ये फक्कड़ गीतकार झूमकर गाता था और सामने बैठे श्रोता झूम जाते थे।

खैर, उनकी प्रमुख कृतियों में दर्द दिया है’ (1956), ‘आसावरी’ (1963), ‘मुक्तकी’ (1958), ‘कारवां गुजर गया’ 1964, ‘लिख-लिख भेजत पाती’ (पत्र संकलन), पंत-कला, काव्य और दर्शन (आलोचना) शामिल हैं। भले ही आज गोपालदास नीरज हम सब के बीच न हो लेकिन उनके लिखे गीत बेहद लोकप्रिय रहे। साहित्य की दुनिया ही नहीं बल्कि हिन्दी फिल्मों में भी उनके गीतों ने खूब धूम मचाई। 1970 के दशक में लगातार तीन वर्षों तक उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

उनके पुरस्कृत गीत हैं-

– काल का पहिया घूमे रे भइया! (वर्ष 1970, फिल्म चंदा और बिजली)

– बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं (वर्ष 1971, फ़िल्म पहचान)

– ए भाई! ज़रा देख के चलो (वर्ष 1972, फिल्म मेरा नाम जोकर)

– हरी ओम हरी ओम (1972, फिल्म- यार मेरा)

– पैसे की पहचान यहां (1970, फिल्म- पहचान)

– शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब (1970, फिल्म- प्रेम पुजारी)

– जलूं मैं जले मेरा दिल (1972, फिल्म- छुपा रुस्तम)

– दिल आज शायर है (1971, फिल्म- गैम्बलर )

मनीषा वतारे :Journalist. Perennially hungry for entertainment. Carefully listens to everything that start with "so, last night...". Currently making web more entertaining place.