मशहूर हिंदी साहित्यकार कृष्णा सोबती का निधन, कहा था- मरने के बाद भी जिंदा रहते हैं शब्द!

कृष्णा सोबती को हिंदी की एक प्रमुख गद्य लेखिका के रुप में जाना जाता था। उनसे जुड़ी इस दुखद खबर को जानने के बाद साहित्य जगत पुरी तरह से शोक में डूब गया। कृष्णा सोबती को कई पुरस्कारों से नवाजा गया था।

कृष्णा सोबती का निधन

प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार कृष्णा सोबती अब हमारे बीच नहीं रही हैं। शुक्रवार को कृष्णा सोबती का निधन 94 साल की उम्र में हो गया है। कुछ समय से उनकी सेहत ठीक नहीं थी। उन्हें हिंदी की एक प्रमुख गद्य लेखिका के रुप में जाना जाता था। उनसे जुड़ी इस दुखद खबर को जानने के बाद साहित्य जगत पूरी तरह से शोक में डूब गया। कुछ वक्त पहले लेखिका कृष्णा सोबती को सीने में परेशानी की वजह से हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया था। उनका जन्म पाकिस्तान में हुआ था।

कृष्णा सोबती के उपन्यासों में हमने ज्यादातर राजनीति और समाज की झलक देखी है। यहां तक की वो मध्यमवर्गीय महिला की आवाज बनने में भी पीछे नहीं हटती थी।18 फरवरी 1925 के दिन जन्मी कृष्णा सोबती ने उपन्यास और कहानी विधा में अपनी कलम का बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया। उनके फेमस उपन्यासों के बात करें तो उसमें कृतियों में डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार तिन पहाड़, सूरजमुखी अंधेरे के आदि शामिल थे। यहां तक की उनका कहानी संग्रह बादलों के घेरे लोगों के दिलों को छूने में जबरदस्त तरीके से कामयाब रहा था।

कलम की ताकत को पुरस्कार से नवाजा

अपनी सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हुई उपन्यास जिंदगीनामा के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से 1980 में नवाजा गया था। इसके बाद उन्हें 1996 में साहित्य अकादमी फेलोशिप मिली थी। अगर उनके पुरस्कारों की कुलमिलकर कर बात की जाए तो उन्हें पद्मभूषण, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान भी प्राप्त हैं।

इन उपन्यासों से बनाई अलग पहचान

कृष्णा सोबती ने ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दोस्तान’ तक जैसी लोगों के बीच फेमस हुई उपन्यास भी लिखी थी। इसमें उन्होंने अपनी जमीन से अलग होने और बंटवारे की यातनों के बारे में बताया था। जिंदगीनामा और मित्रो मरजानी जैसे उपन्यासों ने उनको अलग पहचान देने में मदद की थी। लंबी कहानी ए लड़की का स्वीडन में एक नाट्य मंचन पर भी हुआ। उन्होंने केवल इतिहास को बदलते हुए नहीं देखा बल्कि महसूस किया है। यहां तक की उन्होंने भारत का संविधान बनते हुए भी देखा। उनका कहना था कि मैंने तीन पीढ़ियों अपने सामने जवान होती हुई देखी हैं।

राष्ट्रीय पुरस्कार लौटने को हुईं मजबूर

ऐसे कई बार हुआ जब उन्होंने अपना राष्ट्रीय पुरस्कार तक वापस कर दिया था। जब इसके बारे में उनसे पूछा गया थो उन्होंने कहा कि किसी भी लेखक का ये अधिकार होता है कि स्वीकार करने से पहले वो सम्मानों और पुरस्कारों की संहिता को वह सैद्धांतिक आधार पर बेहतरीन तरीके से जांचे। ऐसे में लेखक को इतनी रियायत तो मिलनी ही चाहिए। इतना ही नहीं कृष्णा सोबती की मौत पर राजनीति गलियारों में भी शोक की लहर देखने को मिल रही हैं। वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष ने कृष्णा सोबती की मौत पर दुख जताते हुए लिखा,’ये इस देश का दुर्भाग्य है कि कृष्णा सोबती जैसी बडी साहित्यकार का निधन होता है और कहीं बहस नहीं होती।’

यहां देखिए पत्रकार आशुतोष का ट्वीट…

यहां देखिए वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी का ट्विट…

यहां देखिए टीवी की दुनिया से जुड़ी हुई खबरें…

 

 

दीपाक्षी शर्मा :सभी को देश और दुनिया की खबरों के साथ-साथ एंटरटेनमेंट जगत से रुबरु कराने का काम करती हूं। राजनीतिक विज्ञान का ज्ञान लेकर एमए पास किया है। मास कम्युनिकेशन में पीजी डिप्लोमा के बाद फिलहाल पत्रकारिता कर रही हूं।